कुछ सवाल , कुछ बातें - " बैरागी मन "

" बैरागी मन "

"Congratulations ! अरे ! नीरू तुम तो celebrity होने जा रही हो । 
Book launch and what not! पता ही नही था लिखती भी हो?" 
मानवमंगल द्विवेदी ने सहजता से निरुपमा से कहा ।
"ऐसा कुछ नही है, बस यूं ही थोडा बहुत" नीरू धीमे  से  बोली ।
"रानीखेत के वातावरण में तो कोई भी लिख सकता है,पति का इतना बड़ा सरकारी बंगला है,काम तो अब तुम्हें  कोई और है नहीं,मैं होता तो अब तक 2-4 किताबें लिख चुका होता!" मानवमंगल ने एक ही सांस में कहा  ।
"तो भागे काहे जा रहे हैं , रुक जाओ, जो कमरा अच्छा लगे , जम जाओ" नीरू बात संभालते हुए बोलीं  ।
"ना ना मुझसे तो न हो पायेगा , बहुत काम रहते हैं मुझे , तुम क्या जानो ?" मानवमंगल ने taxi में suitcase रखते हुए कहा।
"किताब पढ़ के बतायेगा ज़रूर , आलोचना और प्रशंसा दोनों की प्रतीक्षा रहेगी '' नीरू ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया और taxi के पास किसी उम्मीद से खड़ी हो गईं ।
"500 पन्नो की किताब लिखी है , पता नही पढ़ भी पाऊंगा? पढ़ने का शौक होता तो ......  चलो bye and take care " बोलते बोलते मानवमंगल ने  driver को चलने का इशारा किया  और taxi धीरे धीरे नीरू की आंखों से ओझल हो गयी।
******************************************************
अपने गुससे , दुःख और खीझ को समेटे नीरू lawn chair में आंखे मूंदे बैठ गयी। सोचने लगी मानवमंगल उस से ऐसा बर्ताव क्यों करते हैं ? 

ईर्ष्या और असुरक्षा तो औरतों  का स्व्भाव माना  गया है, लेकिन मानवमंगल तो नीरु से 5 साल बड़े इकलौते भाई हैं !
Nationalised bank में senior manager - एक समझदार पुत्र , 
सुशील पति और एक सरल पिता । सह कर्मियों और परिवार में सबके दुलारे ! खेत, घर और पिताजी के bank balance के उत्तराधिकारी।
अपनो के स्नेह का सुरक्षा कवचः रहा है मानवमंगल के पास । 
वहीं नीरु एक जँगली बेल , कभी लुढ़की , लडख़ड़ाई और फिर खुद ही संभली। कहते थे बागी है लड़की !

क्यों किसी ने उसके बारे में कभी नहीं सोचा , इतनी बेपरवाही क्यों  ?

******************************************************
रानीखेत से पढ़ना शुरू किया तो ''बैरागी मन'' घर  जा कर ही संभला।  नीरू ने prize winner किताब लिखी थी। मानवमंगल अपनी बहन के प्रति रूखेपन से अनजान नही थे। 
नीरु को बहुत साल पहले घरवालों ने किस्मत पर  छोड़ दिया था ,कहते थे बागी है लड़की।  न कभी कुछ पूछा , 
न बताया, न रोका न ही टोका - university scholarship , solo trip , विदेश से MBA , प्रेम /अंतर-जातीय विवाह और अब लेखन ! 
जब जो चाहा , जैसे चाहा किया ! 
मानवमंगल सोचने लगे कि  उन्होंने तो बचपन से मानो सीधा गृहस्ती में ही पाँव रखा। कब तक  दूसरों की इच्छाओं का बोझ ढोते रहेंगे ? कब तक माँ के बताये color की shirt पहनते रहेंगे? कब तक हर छुट्टी ससुराल में बीतेगी ? कितनी घुटन थी , बेड़ियाँ थीं।  

क्यों किसी ने उसके बारे में नहीं सोचा , इतनी बेपरवाही क्यों ?







Comments

  1. Nicely pen down thoughts, so true.Waiting for next Beautiful post like this.

    ReplyDelete
  2. Well expressed.Two characters & two different perspectives.

    ReplyDelete

Post a Comment

If you enjoy my writing, please leave a review or a love note to show your support.
Thank you,
A.S.

The content in this blog is copyrighted and owned solely by the blogger. Please do not reproduce or copy any part of this blog.

Popular posts from this blog

कुछ स्वाल कुछ बातें - न बाप बड़ा , न भैया

Sometimes Silly Sometimes Sweet Short Stories #008 Letter To Son

The 8th Of March Visit blogadda.com to discover Indian blogs